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आत्मा ही सत्य है।

सभी मानव ईश्वर की संतान है यह बात गीता में कही गई है। सुख रहित क्षणभंगुर किंतु दुर्लभ मानव तन को पकड़ भजन कर भजन का अधिकार मनुष्य शरीर धारी को ही है। किसी और को नहीं ।यह बात स्वामी अड़गड़ानंद जी ने गीता पर लिखी एक किताब यथार्थ गीता पर कहीं। उन्होंने बताया कि मनुष्य केवल दो प्रकार के होते हैं देवता और असुर जिनके हृदय में देवी संपत्ति कार्य करती है वह देवता है तथा जिसके हृदय में आसुरी संपत्ति कार्य करती है वह असुर है। तीसरी कोई अन्य जाति सृष्टि में नहीं है ।

इसलिए जो ईश्वर को बचकर अपना जीवन विप करते हैं। वह लोग स्वर्ग तक की कामना करते हैं और उन्हें वह मिलता भी है अर्थात सब कुछ एक परमात्मा से ही सुलभ है संपूर्ण पापियों से अधिक पाप करने वाला भी ज्ञान रूपी नौका द्वारा देव हो जाएगा ।

आत्मा के आधिपत्य में आचरण तत्व के अर्थ रूप मुझमें परमात्मा का प्रत्यक्ष दर्शन ज्ञान है और इसके अतिरिक्त जो कुछ भी है वह अज्ञान है। अतः ईश्वर ही प्रत्यक्ष दर्शन जानकारी ही ज्ञान है अत्यंत दुराचारी भी मेरा भजन करके शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है एवं सदा रहने वाली शाश्वत शांति को प्राप्त कर लेता है। अतः धर्मात्मा वह है जो एक परमात्मा के प्रति समर्पित है और भजन करने का अधिकार दुराचारी तक को प्राप्त है यह बात भगवान श्री कृष्ण ने अपने संदेश में कहीं।

इस आत्मदर्शन की क्रिया का स्वरूप आचरण भी जन्म मृत्यु मरण के महान चक्र से निकलने वाला होता है ।संपूर्ण भाव से उसे एक परमात्मा की शरण में जो जिसकी कृपा से तुम परम शांति शाश्वत परमधाम को प्राप्त हो जाओगे। यह बात गीता में कही गई है।

यज्ञ के संदर्भ में कहा गया है कि संपूर्ण इंद्रियों के ज्ञान से प्रकाशित हुई आत्मा में संयम रूपी योग आदमी में हवन करते हैं। बहुत से योगी स्वास को प्रवास में हवन करते हैं और बहुत से प्रवास को स्वास में इसे उन्नति अवस्था होने पर अन्य स्वास् प्रवास की गति को रोक कर प्राणायाम पारायण हो जाते हैं इस प्रकार योग साधना की विधि विशेष का नाम यज्ञ है। इस यज्ञ को कार्य रूप देना चाहिए ।

गीता में कर्म के बारे में कहा गया है इस प्रकार बहुत से यज्ञ ऐसे स्वास्थ्य और प्रवास में हवन प्रवास में स्वास्थ्य में हवन सांस प्रवास का निरोध कर प्राणायाम के प्राणायाम होना इत्यादि यज्ञ जी आचरण से पूर्ण होता है उसे आचरण का नाम कर्म है। करम आराधना करवाने चिंतन योग साधना पद्धति का नाम नाम है ।अब इसमें एक चीज और आती है विकर्म का अर्थ विकल्प शुन्य कर्म है प्राप्ति के पश्चात महापुरुषों के कम विकल्प सुनने होते हैं।

आत्म स्थित आत्म तृप्तिआप्त कम महापुरुषों को ना तो कम करने से कोई लाभ है और ना ही छोड़ने से कोई हानि है फिर भी वह पीछे वालों के हित के लिए कर्म करते हैं ऐसा कम विकल्प सुननी है, विशुद्ध है और यही कर्म विकर्म कहलाता है ।

यह बात करते हैं अब कौन-कौन कर सकता है तो यज्ञ करने के लिए यज्ञ न करने वालों को दोबारा मनुष्य शरीर भी नहीं मिलता अर्थात यज्ञ करने का अधिकार उन सबको है जिन्हें मनुष्य शरीर मिला है गीता में ही कहा गया है कि इस अविनाशी आत्मा को बिरला ही कोई आश्चर्य की तरह देखा है।

आश्चर्य ही जो उपदेश करता है और कोई बिरला ही इसे आश्चर्य को जो सुनता है अर्थात वह प्रत्यक्ष दर्शन है या आत्म स्वरूप व्याप्त अचल स्थिर रहने वाला और सनातन है आत्मा ही सत्य है।